अभिनवगुप्त का काव्यदर्शन और कश्मीर का शैवदर्शन: एक तुलनात्मक अध्ययन

Authors

  • डा. राज पाल

Keywords:

अभिनवगुप्त, रस-सिद्धांत, कश्मीर शैवदर्शन, प्रत्यभिज्ञा, स्पन्द, सौन्दर्यशास्त्र, चैतन्य, काव्यानुभूति, भारतीय दर्शन

Abstract

अभिनवगुप्त भारतीय दर्शन और काव्यशास्त्र की परम्परा में एक ऐसे विरल प्रतिभा-सम्पन्न आचार्य हैं, जिन्होंने कला और अध्यात्म, सौन्दर्य और तत्त्वज्ञान, अनुभूति और साक्षात्कार—इन सभी को एक ही चेतन प्रवाह के विभिन्न आयामों के रूप में देखा। यह शोध-पत्र अभिनवगुप्त के काव्यदर्शन और कश्मीर के अद्वैतवादी शैवदर्शन के अंतर्संबंधों का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत करता है। काव्य के क्षेत्र में अभिनवगुप्त मुख्यतः ‘रस’ को काव्यानुभूति का मूल तत्व मानते हैं—जहाँ रस केवल भावनाओं का उद्रेक नहीं, बल्कि साधक-प्रत्याक्षी में ‘चैतन्य की उत्कर्षानुभूति’ है। दूसरी ओर, कश्मीर का शैवदर्शन, विशेषकर ‘प्रत्यभिज्ञा’ और ‘स्पन्द’ सिद्धांत, चैतन्य को ही ब्रह्म, शिव, स्वात्मा और समस्त अस्तित्व का मूल तत्त्व मानता है। इस प्रकार काव्यानुभूति में जो ‘रस-स्वादन’ है, वह शैवदर्शन में ‘स्व-चैतन्य की प्रत्यभिज्ञा’ के समानान्तर है।

दोनों विचार परम्पराएँ—कला और दर्शन—अभिनवगुप्त के चिंतन में एक-दूसरे की पूरक एवं परस्पर-प्रकाशक बनकर उभरती हैं। यह अध्ययन दर्शाता है कि उनके लिए सौन्दर्य केवल इन्द्रिय-सुख नहीं, बल्कि आध्यात्मिक अनुभूति का द्वार है। काव्य-दर्शन का चरम भी वही है जहाँ साधक स्वयं को ‘रसस्वरूप’ और ‘शिवस्वरूप’ रूप में पहचानता है। इस प्रकार अभिनवगुप्त काव्य-अनुभूति को मोक्ष-अनुभूति की तैयारी तथा चेतना-विस्तार का माध्यम मानते हैं।

References

भरतमुनि — नाट्यशास्त्र, विशेषतः रस-सिद्धांत के अध्याय।

अभिनवगुप्त — अभिनवभारती (नाट्यशास्त्र पर टीका)।

अभिनवगुप्त — ईश्वरप्रत्यभिज्ञा-विवृति तथा ईश्वरप्रत्यभिज्ञा-विमर्शिनी।

अभिनवगुप्त — तन्त्रालोक (कश्मीर शैवदर्शन का महाग्रन्थ)।

वासुगुप्त — शिवसूत्र।

कश्मीर शैव परम्परा के अन्य ग्रन्थ — स्पन्दकारिका (कल्लट द्वारा रचित)।

राधाकृष्णन, एस. — Indian Philosophy, खण्ड 2 (कश्मीर शैवदर्शन पर विवेचन)।

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How to Cite

डा. राज पाल. (2025). अभिनवगुप्त का काव्यदर्शन और कश्मीर का शैवदर्शन: एक तुलनात्मक अध्ययन. International Journal of Engineering, Science and Humanities, 15(4), 160–175. Retrieved from https://www.ijesh.com/j/article/view/314